श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारीप्राक्कथन एवं अन्तिम निवेदन
यह ग्रन्थ साम्प्रदायिक प्रचार की दृष्टि से लिखा भी नहीं गया है। साम्प्रदायिक भावों का प्रचार करने वाले तो बहुत-से ग्रन्थ हैं, यह तो चैतन्यदेव को भक्त मानकर उनके त्याग, वैराग्य और प्रेम के भावों को सार्वदेशिक बनाने की नीयत से लिखा गया है। ‘चैतन्य-चरितावली’ के चैतन्य किसी एक ही देश, एक ही सम्प्रदाय और एक ही भाव के लोगों के न होकर वे सार्वदेशिक हैं। उनके ऊपर सभी का समान अधिकार है, इसलिये साम्प्रदायिक बन्धु मेरी इस धृष्टता को क्षमा करें। अन्त में मै। उन श्रद्धेय और कृपालु महात्माओं के चरणों में कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ, जो अपने देवदुर्लभ दर्शनों से इस दीन-हीन कंगाल को कृतार्थ करते रहते हैं। ब्र. इन्द्र जी, ब्र. आनन्द जी, ब्र. कृष्णानन्द जी, स्वा. विश्वनाथ जी[1] आदि अपने प्रेमी धर्मबन्धुओं को भी यहाँ प्रेमपूर्वक स्मरण कर लेना अपना कर्तव्य समझता हूँ। इनके सम्बन्ध में धन्यवाद या कृतज्ञता लिखना तो इनके साथ भारी अन्याय होगा, क्योंकि ये अपने हैं और अपनों के सामने धन्यवाद और कृतज्ञता ऐसे शब्द कहना शोभा नहीं देता, किन्तु ये सभी भगवान के प्यारे हैं, श्रीहरि के कृपापात्र हैं। प्रभु के प्यारों के स्मरण करने से भी पापों का क्षय होता है। अतः अपने पापों के क्षय करने के ही निमित्त इनका स्मरण कर लेना ठीक होगा। ये बन्धु श्रीगौर-गुणों में अनुराग रखते हुए अपनी सुखमय संगति से मुझे सदा आनन्दित और उत्साहित करते रहते हैं। मुझमें न तो विद्या है न बुद्धि, चैतन्य-चरित्र लिखने के लिये जितनी क्षमता, दक्षता, पटुता, सच्चरित्रता, एकनिष्ठा, सहनशीलता, भक्ति, श्रद्धा और प्रेम की आवश्यकता है, उसका शतांश भी मैं अपने में नहीं पाता। फिर भी इस कार्य को कराने के लिये मुझे ही निमित्त बनाया गया है, वह उस काले चैतन्य की इच्छा। वह तो मूक को भी वाचाल बना सकता है और पंगु से भी पर्वतलंघन करा सकता है। इसलिये अपने सभी प्रेमी बन्धुओं से मेरी यही प्रार्थना है कि वे मेरे कुल-शील, विद्या-बुद्धि की ओर ध्यान न दें। वे चैतन्यरूपी मधुर मधु के रसास्वादन से ही अपनी रसना को आनन्दमय बनावें। श्रीस्वामी विष्णुपुरी नामक एक परमहंस जी ने श्रीमद्भागवत से कुछ सुन्दर-सुन्दर श्लोकों को चुनकर ‘भक्तिरत्नावली नामक एक पुस्तक बनायी है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ सम्राट गौरचन्द्र