श्री श्रीचैतन्य-चरितावली -प्रभुदत्त ब्रह्मचारीप्राक्कथन एवं अन्तिम निवेदन
आनन्दलीलामयविग्रहाय पुण्यवती नवद्वीप नगरी में मिश्रवंशावतंस पुरन्तर-उपाधिविशिष्ट पण्डतप्रवर श्रीजगन्नाथ मिश्र के यहाँ भाग्यवती शचीदेवी के गर्भ में तेरह मास रहकर महाप्रभु गौरांगदेव सं. 1407 शकाब्द (वि. 1542) की फाल्गुन की पूर्णिमा के दिन इस धराधाम पर अवतीर्ण हुए। बाल्यकाल से ही इन्होंने अपने अद्भुत-अद्भुत ऐश्वर्य प्रदर्शित किये। अपनी अलौकिक बाल-लीलाओं से अपने माता-पिता, भाई-बन्धु तथा पुरजन-परिजनों को आनन्दित करते हुए जब इनकी अवस्था सात-आठ वर्ष की हुई तब इनके अग्रज विश्वरूपजी अपने पिता- माता को बिलखते छोड़कर संसारत्यागी विरागी बन गये। तब इन्होंने पुत्र-शोक से दुखी हुए माता-पिता को अल्पावस्था में ही अपने अनुपम-सान्त्वनामय वाक्यों से शान्ति प्रदान की और माता-पिता की विचित्र भाँति से अनुमति प्राप्त करके विद्याध्ययन में ही अपना सम्पूर्ण समय बिताने लगे। कालान्तर में इनके पूज्य पिता परलोकवासी हुए, तब सम्पूर्ण घर-गृहस्थी का भार इन्हीं के ऊपर आ पड़ा। इसीलिये सोलह वर्ष की अल्पायु में ही ये अध्यापकी के अत्युच्च आसन पर आसीन हुए और कुछ काल के अनन्तर द्रव्योपार्जन तथा मनोरंजन और लोक-शिक्षण के निमित्त इन्होंने राढ़देश में भ्रमण किया। विवाह पहले ही हो चुका था। राढ़देश से लौटने पर अपनी प्राणप्रिया प्रथम पत्नी लक्ष्मी देवी को इन्होंने घर पर नहीं पाया, उन्हें पतिरूपी वियोग-भुजंग ने डस लिया था। माता की प्रसन्नता के निमित्त उनके आग्रह करने पर श्रीविष्णुप्रिया जी के साथ इनका दूसरा विवाह हुआ। कुछ काल अध्यापकी करते हुए और गार्हस्थ्य जीवन का सुख भोगने के अनन्तर इन्होंने पितृ-ऋण से उऋण होने के निमित्त अपने पूर्व पितरों की प्रसन्नता और श्राद्ध करने के लिये श्री गयाधाम की यात्रा की। वहीं पर स्वनामधन्य श्रीस्वामी ईश्वरपुरी ने न जाने इनके कान में कौनसा मन्त्र फूँक दिया कि उसके सुनते ही ये पागल हो गये ओर सदा प्रेम-वारूणी का पान किये हुए उसके मद में भूले-से, भटके-से, उन्मत्त-से, सिड़ी-से, पागल-से बने हुए ये सदा लोकबाह्य प्रलाप-सा करने लगे। ऐसी दशा में पढ़ना-पढ़ाना सभी कुछ छूट गया। बस, प्रेम में उन्मत्त होकर प्रेमी भक्तों के सहित अहर्निश श्रीकृष्ण-कीर्तन करते रहना ही इनके जीवन का एकमात्र व्यापार बन गया। पुराना जीवन एकदम परिवर्तित हो गया। गया से आने पर अध्यापकी का अन्त होने पर इनके पुराने जीवन के कार्यक्रम का भी अन्त ही हो गया। यह गौरांग महाप्रभु के जीवन का प्रथम भाग है, महाप्रभु के असली प्रेममय जीवन का आरम्भ तो उनके जीवन के दूसरे ही भाग में होता है, प्रेम-जीवन ही असली जीवन है। जिस जीवन में प्रेम नहीं उसे ‘जीवन’ कहना ही पाप है। वह तो ‘जड जीवन’ है। जिस प्रकार ईंट-पत्थर पृथ्वी पर पड़े हुए अपनी आयु बिताते हुए भूमिका भार बने हुए हैं, वही दशा प्रेम से रहित जीवन बिताने वाले व्यक्ति की है। हिन्दी के किसी कवि ने निम्न पद में प्रेम का कैसा सुन्दर आदर्श बताया है- |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिनका श्रीविग्रह आनन्द-लीलामय ही बना हुआ है, जिनके शरीर की सुन्दर कान्ति सुवर्ण के समान शोभायमान और दीप्यमान है, जो प्राणियों को पूर्ण प्रेम प्रदान करने वाले हैं, चन्द्रमा के समान शीतल प्रेम रूपी किरणों के द्वारा भक्तों के संतापों को शान्त करने वाले उन श्रीचैतन्यदेव के चरण-कमलों में हम बार-बार प्रणाम करते हैं। चैतन्यचन्द्रामृतस्य