चूक परी हरि की सेवकाई।
यह अपराध कहाँ लौ बरनौ, कहि कहि नंद महर पछिताई।।
कोमल चरन कमल कंटक कुस, हम उन पै बन गाइ चराई।
रंचक दधि के काज जसोदा, बाँधे कान्ह उलूपन लाई।।
इंद्रप्रकोप जानि व्रज राखे, बरुन फाँस तै मोहि मुकराई।
अपने तन-धन-लोभ कंस डर, आगै कै दीन्हे दोउ भाई।।
निकट बसत कबहुँ न मिलि आयौ, इते मान मेरी निठुराई।
‘सूर’ अजहुँ नातौ मानत है, प्रेम सहित करै नंददुहाई।। 3162।।