चितै रही राधा हरि कौं मुख।
भृकुटि बिकट, बिसाल नैन लखि, मनहिं भयौ रतिपति दुख।।
उतहिं स्याम इकटक प्यारी छवि, अंग अंग अवलोकत।
रीझि रहे हत हरि, उत राधा, अरस परस दोउ नोकत।।
सखिनि कह्यौ वृषभानुसुता सौ, देखे कुँवर कन्हाई।
‘सूर’ स्याम येई है, ब्रज मैं जिनकी होति बड़ाई।।1765।।