चितै रही राधा हरि कौं मुख -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल


चितै रही राधा हरि कौं मुख।
भृकुटि बिकट, बिसाल नैन लखि, मनहिं भयौ रतिपति दुख।।
उतहिं स्याम इकटक प्यारी छवि, अंग अंग अवलोकत।
रीझि रहे हत हरि, उत राधा, अरस परस दोउ नोकत।।
सखिनि कह्यौ वृषभानुसुता सौ, देखे कुँवर कन्हाई।
‘सूर’ स्याम येई है, ब्रज मैं जिनकी होति बड़ाई।।1765।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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