चाह-कुचाह मिट गयी सारी -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा के प्रेमोद्गार-श्रीकृष्ण के प्रति

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तर्ज लावनी - ताल कहरवा


चाह-कुचाह मिट गयी सारी, रही एक यह ‘प्यारी चाह’।
मधुर तुम्हारे स्मृति-सागर में डूबी रहूँ, न पाऊँ थाह॥
मेरे सब कुछ एक तुम्हीं हो, सारी ममता के आधार।
मैं भी एक तुम्हारी ही हूँ, ममता मुझ पर नित्य अपार॥
तुम्हें छोडक़र नहीं दीखता कभी कहीं भी को‌ई और।
एक तुम्हीं करते विहार नित मधुर मनोहर सब ही ठौर॥
नहीं दीखता मुझ में मेरा कुछ भी भला-बुरा गुण-दोष।
नित्य कर रहे तुम वे लीला, जिनसे तुम पाते परितोष॥
क्या मैं कहूँ, करूँ कैसे कुछ और? बता‌ओ प्रियतम श्याम!
जबकि तुम्हीं बाहर-भीतर कर रहे नित्य लीला अभिराम॥
करते रहो सदा तुम लीला यों ही मनमानी स्वच्छन्द।
अंग-अंग, मन-मति-‌आत्मा, सब देते रहें तुम्हें आनन्द॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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