चँवर

चँवर शब्द का उल्लेख पौराणिक महाकाव्य महाभारत में मिलता है। यह पशुओं मुख्यतः 'सुरा' नामक गाय की पूँछ के लंबे बालों तथा मोर पंखों से बना वह गुच्छा होता है, जो दस्ते के अगले भाग में लगा होता है।

  • चँवर को देवमूर्तियों, धर्मग्रंथों तथा राजाओं आदि के ऊपर इधर-उधर डुलाया जाता है, जिससे कि उन पर मक्खियाँ आदि न बैठने पायें।
  • 'श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध' में रुक्मिणी जी द्वारा भगवान श्रीकृष्ण की सेवा को दर्शाया गया है। शुकदेवजी कहते हैं- "परीक्षित! एक दिन समस्त जगत के परमपिता और ज्ञानदाता भगवान श्रीकृष्ण रुक्मिणी जी के पलँग पर आराम से बैठे हुए थे। भीष्मकनन्दिनी श्रीरुक्मिणी जी सखियों के साथ अपने पतिदेव की सेवा कर रही थीं, उन्हें पंखा झल रही थीं। उद्यान में पारिजात के उपवन की सुगन्ध लेकर मन्द-मन्द शीतल वायु चल रही थी। झरोखों की जालियों में से अगर के धूप का धुआँ बाहर निकल रहा था। ऐसे महल में दूध के फेन के समान कोमल और उज्ज्वल बिछौनों से युक्त सुन्दर पलँग पर भगवान श्रीकृष्ण बड़े आनन्द से विराजमान थे और रुक्मिणी जी त्रिलोकी के स्वामी को पतिरूप में प्राप्त करके उसकी सेवा कर रही थीं। रुक्मिणी जी ने अपनी सखी के हाथ से वह चँवर ले लिया, जिसमें रत्नों की डांडी लगी थी और परमरूपवती लक्ष्मीरूपिणी देवी रुक्मिणी जी उसे डुला-डुलाकर भगवान की सेवा कर रही थीं।[1]


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 60 श्लोक 1-11

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