चले बन धेनु चारन कान्ह।
गोप-बालक कछु सयाने, नंद के सुत नान्ह।
हरष सौं जसुमति पठाए, स्याम-मन आनंद।
गाइ गो-सुत गोप बालक, मध्य श्री नँद-नंद।
सखा हरि कौं यह सिखावत, छाँड़ि जिनि कहुँ जाहुँ।
सघन बृंदाबन अगम अति, जाइ कहुँ न भुलाहु।
सूर के प्रभु हँसत मन मैं, सुनत ही यह बात।
मैं कहूँ नहिं संग छाँड़ौं, बनहिं बहुत डरात।।610।।