चली बन मौन मनायौ मानि।
अचल ओट पुहुप दिखारायौ धरयौ सीस पर पानि।।
ससि तन चितै नैन दोउ मूँदे, मुख महँ अँगुरी आनि।
यह तौ चरित गुप्त की बातै, मुसुकाने जिय जानि।।
रेखा तीनि भूमि पर खाँची, तृन तोरयौ कर तानि।
'सूरदास' प्रभु रसिक सिरोमनि, बिलसहु स्याम सुजान।।2603।।