चलीं जहाँ जो जैसे थीं, भर मनमें प्रियतमका अनुराग॥
नहीं किसी से पूछा कुछ भी, कहा न कुछ भी, चित्त विभोर।
चलीं वेगसे जहाँ बजाते थे मुरली मधु नन्द-किशोर॥
प्रेमविवर्धक मुरली-स्वरसे हो अति विह्वल व्रजनारी।
पहुँचीं तुरत निकट प्रियतमके भूल स्व-परकी सुधि सारी॥
थीं वे कृष्णगृहीत-मानसा, थीं वे उज्ज्वल रसकी मूर्ति।
थीं वे शुचितम प्रेमपूर्ण नटवरकी मधुर लालसा-पूर्ति॥
आत्मनिवेदन, पूर्ण समर्पण था पवित्रतम उनका भाव।
जिसमें था न स्व-सुख-वाञ्छाका किंचित् लेश, न किंचित् चाव॥
विविध भाँतिसे किया परीक्षण, दिखा मोह, भय, धर्म, विवेक।
पर उन प्रेममयी शुचि ब्रज-वधुओंने तनिक न छोड़ी टेक॥
कहा-’विभो ! सर्वत्र विराजित ! सर्व-समर्थ ! सर्व-आधार।
क्यों नृशंस तुम बोल रहे यों ? आयीं हमें देख निज द्वार॥
त्याग सर्व-विषयोंको-भुक्ति-मुक्तिको, हम आयीं पद-मूल।
दुरवग्रह ! मत छोड़ो हमको, यों सारी रसमयता भूल॥