चलनि चहति पग चलैं न घर कौं।
छाँड़त बनत नहीं कैसे हूँ, मोहन सुंदर बार कौं।।
अंतर नैंकु करौ नहिं कबहूँ, सकुचति हौं पुर-नर कौं।
कछु दिन जैसैं तैसैं खोऊँ, दूरि करौं पुनि डर कौं।।
मन मैं यह बिचारि करि सुंदरि, चली आपने पुर कौं।
सूरदास प्रभु कह्यौ जाहु घर, घात करयौ नख उर कौं।।738।।