चलत न माधौ की गही बाहै।
बार बार पछिताति तबहि तै, यहै सूल मन माहै।।
घर बन कछु न सुहाइ रैनि दिन, मनहु मृगी दव दाहै।
मिटति न तपति बिना घनस्यामहि, कोटि घनी घन छाहै।।
बिलपति अति पछिताति मनहि मन, चंद्र गहै जनु राहैं।
'सूरदास' प्रभु दूरि सिधारे, दुख कहिऐ किहि पाहै।। 3279।।