चलत न माधौ की गही बाहै -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग मलार


चलत न माधौ की गही बाहै।
बार बार पछिताति तबहि तै, यहै सूल मन माहै।।
घर बन कछु न सुहाइ रैनि दिन, मनहु मृगी दव दाहै।
मिटति न तपति बिना घनस्यामहि, कोटि घनी घन छाहै।।
बिलपति अति पछिताति मनहि मन, चंद्र गहै जनु राहैं।
'सूरदास' प्रभु दूरि सिधारे, दुख कहिऐ किहि पाहै।। 3279।।

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