चरावत बृंदाबन हरि धेनु।
ग्वाल सखा सब संग लगाए, खेलत हैं करि चैनु।
कोउ गावत, कोउ मुरलि बजावत, कोउ बिषान कोउ बेनु।
कोउ निरतत कोउ उघटि तार दै, जुरी ब्रज-बालक-सेनु।
त्रिबिध पवन जहँ बहत निसादिन सुभग कुंज घन ऐनु।
सूर स्याम निज धाम बिसारत, आवत यह सुख लैनु।।448।।