चरन गहे अंगुठा मुख मेलत -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग बिलावल



चरन गहे अँगुठा मुख मेलत।
नंद-घरनि गावति, हलरावति, पलना पर हरि खेलत।
जे चरनारबिंद श्री-भूषन, उर तैं नैंकु न टारति।
देखौ धौं का रस चरनानि मैं, मुख मेलत करि आरति।
जा चरनारबिंद के रस कौं सुर-मुनि करत बिषाद।
सो रस है मोहूँ कौं दुरलभ, त तै लेत सवाद।
उछरत सिंधु, धराधर काँपत, कमठ पीठ अकुलाइ।
सेष सहसफन डोलन लागे, हरि पीवत जब पाइ।
बढ़यौ बृच्छ बट सुर, अकुलाने, गगन भयौ उतपात।
महा प्रलय के मेघ उठे करि जहाँ-तहाँ आघात।
करुना करी, छांड़ि पग दीन्हौ, जानि सुरनि मन संस।
सूरदास प्रभु असुर-निकंदन, दुष्टनि कैं उर गंस।।64।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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