चक्रित भईं घोष-कुमारि।
हम नहीं घर गईं तब तैं रहीं बिचारि-बिचारि।।
घरहिं तैं हम प्रात-आई, सकुचि बदन निहारि।
कछु हँसति कछु डरतिं, गुरुजन देत ह्वैंहैं गारि।।
जो भई सो भई हम कहँ, रहीं इतनी नारि।
सखा सँग मिलि खाइ दधि, तबहीं गए बनवारि।।
इहाँ लौं की बात जानतिं, यह अचंभौ भारि।
यहै जानतिं सूर के प्रभु, सिर गए कछु डारि।।1627।।