चंद्रावली हरष सौ बैठी, तहाँ सहचरी आई (हो)।
औरे बदन, और अँग सोभा, देखि रही चख लाई (हो)।।
कहा आजु अति हरषित बैठी कहा लूटि सी पाई (हो)।
क्यौ अँग सिथिल, मरगजी, सारी, यह छवि कही न जाई (हो)।।
मोसौ कहा दुराव करति है, कहा रही सिर नाई (हो)।
मै जानी तोहिं मिले 'सूर' प्रभु, जसुमति कुँवर कन्हाई (हो)।।2528।।