चंद्रावली करति चतुराई, सुनत बचन मुख मूँदि रही।
ज्वाब नहीं कछु देति सखी कौ, हाँ, नाही कछुवै न कही।।
गूँगे गुर की दसा गई ह्वै, पूरन स्याम सुहाग भरी।
बहै ध्यान हरि कै अनुरागी, वह लीला चित तै न टरी।।
तब बोली मोसौ कछु बूझति, कहा कहौ मुख बनै नही।
'सूर' स्याम जुबती-मन-मोहन, तिनके गुन नहिं परत कही।।2529।।