घर पठई प्यारी अंकम भरि।
कर अपनैं मुख परसि तिया कौ, प्रेम सहित दोऊ भुज धरि धरि।।
सँग सुख लूटि हरष भरि हिरदै, चली भवन भामिनि गज-गति ढरि।
अँग मरगजी पटोरी राजति, छबि निरखत रीझत ठाढ़े हरि।।
बेनी डुलति नितंबनि पर दोउ, छीन लंक पर बारौं केहरि।
फिरि चितयौ तब प्यातरी पिय-तनु दुहुँ मन मन आनंद हरष करि।।
राधा हरि आधा आधा तनु एकै, ह्वै द्वै ब्रज मैं अवतरि।
सूरस्याम रस भरी उमँगि अँग, वह छबि देखि रह्यौ रति-पति डरि।।1693।।