घर ना सुहात ना सुहात बन बाहिर हूँ ,
बाग ना सुहात जो खुसाल खुसबोही सों ।
कहै पदमाकर घनेरे घन घाम त्यों ही ,
चैत न सुहात चाँदनी हू जोग जो ही सों ।
साँझ हूँ सुहात न सुहात दिन मौझ कछू ,
व्यापी यह बात सो बखानत हौ तोही सौं ।
राति हू सुहात न सुहात परभात आली ,
जब मन लागि जात काहू निरमोही सौं ।