घरहिं चलीं जमुना-जल भरि कै।
साखिनि बीच नागरी बिराजति भई प्रीति उर हरि कैं।।
मंद-मंद गति चलत अधिक छबि, अंचल रह्यौ फहरि कै।
मोहन कौं मोहिनी लगाई, संगहिं चले डगरि कै।।
बेनी की छबि कहत न आवै, रही नितंबनि ढरि कै।।
सूर स्याम प्यारी कैं बस भए, रोम-रोम रस भरि कैं।।1437।।