गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 9

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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रसखानि कहते हैं-

बिनु जोबन गुनरूप धन, बिनु स्वारथ हित जानि।
सुद्ध कामनाते रहित, प्रेम सकल ‘रसखानि‘।।
अति सूच्छम, कोमल अतिहि, अति पतरो, अति दूर।
प्रेम कठिन सबते सदा, नित इकरस भरपूर।।
रसमय, स्वाभाविक, बिना स्वारथ, अचल महान।
सदा एक रस बढ़त नित, सुद्ध प्रेम ‘रसखानि‘।।

प्रेम की बाढ़ कभी रूकती ही नहीं-इस चन्द्रकला के लिये कभी पूर्णिमा नहीं होती।

प्रेम सदा बढ़िबौ करै, ज्यों ससिकला सुबेष।
पै पूनो यामें नहीं, तातें कबहुँ न सेष।।

और ऐसा प्रेम वस्तुतः केवल भगवान् में उनके प्ररमी भक्त का ही हो सकता है। देवर्षि नारद जी ऐसे प्रेम का लक्षण बतलाते हुए कहते हैं-

अनिर्वचनीयं प्रेमस्वरूपपम्। मूकास्वादनवत्। प्रकाशते क्वापि पात्रे। गुणरहितं कामनारहितं प्रतिक्षणवर्धमानमविच्छन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्। तत्प्रायप्य तदेवावलोकयति, तदेव श्रृणोति, तदेव चिन्तयति।।[1]

अर्थात् ‘प्रेम के स्वरूप का उसी प्रकार वर्णन नहीं किया जा सकता, जैसे गूँगा स्वाद का वर्णन नहीं कर सकता। ऐसा प्रेम किसी विरले भाग्यवान् अधिकारी-(परम विषय-विरागी भगवदनुरागी भक्त में ही प्रकट होता है। यह प्रेम गुणों से रहित है, इसमें कामना-) की गन्ध नहीं है, यह हर क्षण बढ़़ता ही रहता है, इसका प्रवाह सदा अटूट रहता है, यह अति सूक्ष्म है, केवल अनुभव से जाना जा सकता है। इस प्रेम को ही चिन्तन करता है।‘ वहाँ प्रेम प्रेमस्पद में कोई अन्तर नहीं रह जाता।

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  1. (नारदभक्तिसूत्र 51-55)

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