गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 41

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

Prev.png

रसोल्लासतन्त्र में भगवान् श्री शिवजी देवी पार्वती से रास के सम्बन्ध में कहते हैं-

शरीरे देहानि यथा स्थूलं सूक्ष्मं च कारणम्।
तथैवान्यद् देहं ज्ञेयं भावदेहं प्रकीर्तितम्।।
कृपालब्धमिदं देहं सहजं जन्मजन्मनि।
अथवा साधनालब्धं कदापि वा महेश्वरि।।
न सगुणं निर्गुणं वा देहमिदं परात्मकम्।
कुत्रापि न हि द्रष्टव्यं लोके वृन्दावनं विना।।
संगतं सह कृष्णेन गोपीनां चरितं च यत्।
तन्न कामादकामाद्वा भवदेहेन तत्कृतम्।।

अर्थात्‘ जैसे शरीर के स्थूल, सूक्ष्म और कारण देह हैं, ऐसे ही एक भावदेह और होता है, यह देह भगवत्कृपा से प्राप्त होता है और उन्हीं की कृपा से जन्म-जन्मान्तर में सहज ही मिल जाता है। (प्रायः ऐसा देह भगवान् के मुक्त परिकरों का या कारक पुरूषों का होता है।) अथवा हे महेश्वरि ! कभी-कभी साधना के द्वारा भी इस देह की प्राप्ति हो सकती है। यह भावदेह न (कर्मजन्य) सगुण है और न निर्गुण है, यह परमात्मा का देह है जो वृन्दावन के सिवा और कहीं नहीं देखा जाता। श्रीकृष्ण के साथ मिलकर गोपियाँ कृतार्थ हुई थीं, उनका यह मिलन न कामजन्य था और न अकाम। वह भावदेहकृत था।‘ शिवजी के इन वाक्यों से, श्रीकृष्ण और गोपियों के प्रेम की दिव्यता स्पष्ट है। गोपियों का श्रीकृष्ण के साथ रमण प्राकृत शारीरिक नहीं था, उसमें इन्द्रियों का विषय तनिक भी नहीं था, अतएव इस दिव्य प्रेमलीला में दोष देखना महापाप है।

Next.png

वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज

                                 अं                                                                                                       क्ष    त्र    ज्ञ             श्र    अः