गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार
गोपी–प्रेम‘गोपी -प्रेम‘ पर कुछ भी लिखना वस्तुतः मुझ -सरीखे मनुष्य के लिये अनधिकार चर्चा है। गोपी –प्रेम का तत्त्व वही प्रेमी भक्त कुछ जान सकता है, जिसको भगवान् की ह्लादिनी शक्ति श्रीमती राधिकाजी और आनन्द तथा प्रेम के दिव्य समुद्र भगवान् सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्रीकृष्ण स्वयं कृपापूर्वक जना देते हैं। जानने वाला भी उसे कह या लिख नहीं सकता, क्योंकि ‘गोपी-प्रेम‘ का प्रकाश करनेवाली भगवान् की वृनदावन लीला सर्वत्र अनिर्वचनीय है। वह कल्पनातीत, आलौकिक और अप्राकृत है। समस्त व्रजवासी भगवान् के मायामुक्त परिकर हैं और भगवान् की जिन आनन्द शक्ति, योगमाया श्री राधिका जी की अध्यक्षता में भगवान् श्रीकृष्ण की मधुर लीला में योग देने के लिये व्रज में प्रकट हुए हैं। व्रज में प्रकट इन महात्माओं की चरणरज की चाह करते हुए सृष्टिकर्ता ब्रह्मा स्वयं कहते हैं- तदस्तु में नाथ स भूरिभागो ‘हे प्रभो! मुझे ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो कि मैं इस जन्म में अथवा किसी तिर्यक्-योनि में ही जन्म लेकर आपके दासों में से एक होऊँ, जिससे आपके चरण कमलों की सेवा कर सकूँ। अहो! नन्दादि व्रजवासी धन्य हैं। इनके धन्य भाग्य हैं जिनके सुहृद् परमानन्दरूप सनातन पूर्णब्रह्म स्वयं आप हैं। इस धरातल पर व्रज में और उसमें भी गोकुल में किसी कीडे़-मकोड़े की योनि पाना ही परम सौभाग्य है, जिससे कभी किसी व्रजवासी की चरणरज से मस्तक को अभिषिक्त होने का सौभाग्य मिले।‘ |
- ↑ (श्रीमद्भा0 10 । 14 । 30, 32, 34)
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