गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार पृ. 16

गोपी प्रेम -हनुमान प्रसाद पोद्दार

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अपने तन, मन, धन, रूप, योवन, लोक-परलोक-सबको श्रीकृष्ण की सुख-सामग्री समझकर श्रीकृष्ण-सुख के लिये शुद्ध अनुराग करना ही पवित्र गोपीभाव है। इस गोपीभाव में मधुर रस की प्रधानता है। रस पाँच हैं- शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य और माधुर्य। लौकिक और ईश्वरीय-दिव्य भेद से ये पाँचों रस दो प्रकार के हैं अर्थात् लौकिक प्रेम भी उपर्युक्त पाँच प्रकार का है और दिव्य प्रेम भी पाँच प्रकार का है। परंतु इन पाँचों में मधुर रस-कान्ता प्रेम सबसे ऊँचा है, क्योंकि इसमें शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य-ये चारों ही रस विद्यमान हैं। यह अधिक गुण सम्पन्न होने से अधिक स्वादिष्ट है, इसलिये इसका नाम ‘मधुर‘ है। इसी प्रकार दिव्य प्रेम में भी कान्ता प्रेम-मधुर रस ही सर्वप्रधान है। शान्त और दास्य रस में ‘भगवान् ऐश्वर्यशाली हैं, मैं दीन हूँ भगवान् सवामी हैं, मैं सेवक हूँ‘- ऐसा भाव रहता है। इसमें कुछ अलगाव-सा है, भय है और संकोच है; परंतु सख्य, वात्सल्य और माधुर्य में क्रमशः भगवान् अधिकाधिक निजजन हैं, अपने प्यारे हैं, प्रियतम हैं, इनमें भगवान् ऐश्वर्य को भुलाकर, विभूति को छिपाकर सखा, पुत्र या कान्त रूप से भक्त के सामने सदा प्रकट रहते हैं, इन रसों में प्रार्थना-कामना है ही नहीं। अपने निज-जन से प्रार्थना कैसी? उसका सब कुछ अपना ही तो है। इनमें भी कान्ता भाव सर्वप्रधान है। कान्ता भाव में पिछले दोनों रसों का-सख्य और वात्सल्य का पूर्ण समावेश है। यहाँ भगवान् की सेवा खूब होती है, इतनी होती है कि सेवा करने वाला भक्त कभी थकता ही नहीं; क्योंकि यह मालिक की सेवा नहीं है, प्रियतम की सेवा है। प्रियतम के सुखी होने में ही अपार सुख है, जितना सुख पहुँचे, उतना ही थोड़ा; क्योंकि प्रियतम को जितना अधिक सुख पहुँचता है, उतने ही अपार सुख का अनुभव उसे सुख पहुँचाने वाली प्रेममयी प्रियतमा को होता है।

यह कान्ताभाव दो प्रकार का है- स्वकीया और परकीया। लौकिक कान्ताभाव में परकीया भाव त्याज्य है, घृणित है; क्योंकि उसमें अंग-संगरूप कामवासना रहती है और प्ररमास्पद ‘जार मनुष्य‘ होता है। परंतु दिव्य कान्ताभाव में -परमेश्वर के प्रति होने वाले कान्ताभाव में परकीयाभाव ग्राह्या है। वह स्वकीया से श्रेष्ठ है, क्योंकि इसमें कहीं अंग-संग या इन्द्रिय तृप्ति की आकांक्षा नहीं है।

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