गोपीजनसे घिरे श्याम का अब कीजिये मधुरतम ध्यान।
अति मनहर ब्रज-सुन्दरियों की श्रेणीसे सेवित भगवान॥
स्थूल नितबों के बोझे से जो हो रहीं थकित, अति श्रान्त।
मन्थर ति सेग चलतीं वे गुरु वक्षःस्थल से भाराक्रान्त॥
कबरी गुँथी कर रही उनके रय नितम्ब-देशका स्पर्श।
रोम-राजि त्रिवलीयुत वक्षःस्थल से सटी पा रही हर्ष॥
देह-लता रोमाच-अलंकृत पाकर वेणु-सुधा रसराज।
मानो प्रेमरूप पादप हो गया पल्लवित, मुकुलित आज॥
परम मनोहर मोहन की अति मधुर मोहिनी मृदु मुसकान।
चन्द्रालोक-सदृश करती अनुरागाम्बुधिका वर्धित मान॥
मानो उसकी तरल तरंगों के कणरूपी शोभा-सार।
गोप-रमणियों के अङ्गों में प्रकट चारु श्रमबिन्दु अपार॥
परम मनोहर भ्रूचापों से वनमाली वर्षा करते।
तीक्ष्ण प्रेम-बाणों की, उनसे तन-मन की सुध-बुध हरते॥
विदलित मर्मस्थल समस्त हैं, हुए जर्जरित सारे अङ्ग।
मानो प्रेम-वेदना फैली अति दुस्सह, बदले सब रंग॥
परम मनोहर वेष, रूप-सुषमामृतका करनेको पान।
लोलुप रहतीं व्रज-बालाएँ नित्य-निरन्तर तज भय-मान॥
प्रणयरूप पय-राशि-प्रवाहिणि मानो वे सरिता अनुपम।
अलस-विलोल-विलोचन उनके उसमें शोभित सरसिज-सम॥