गोपाल राइ निरतत फन-रति ऐसे।
गिरि पर आए बादर देखत, मोर अनंदित जैसे।
डोलत मुकुट सीस पर हरि के, कुंडल-मंडित गंड।
पीत बसन, दामिनि मनु धन पर, तापर सुर-कोदंड।
उरग-नारि आगैं सब ठाढ़ीं, मुख-मुख अस्तुति गावैं।
सूर स्याम अपराध छमहु अब, हम माँगैं पति पावैं।।566।।