गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 359

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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श्रीजयदेव-भणितमति-ललितम्।
सुखयतु रसिकजनं हरि-चरितम्॥
माधवे... ॥8॥[1]

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा विरचित अति सुललित श्रीकृष्ण-चरित-कथा रसिकजनों का सुख-वद्धर्न करे।

पद्यानुवाद
कवि जयदेव कथित यह वाणी।
रसिकजनों को हो सुखदानी॥
रस परिपूरित प्राण करो।
मानिनि! मत अब मान करो॥

बालबोधिनी- गीतगोविन्द काव्य के इस अठारहवें प्रबन्ध का नाम अमन्दमुकुन्द है। श्रीहरि की प्रसन्नता एवं रसिक भगवद्भक्तों की प्रसन्नता ही इस गान का एकमात्र उद्देश्य और फल है। कवि जयदेव कह रहे हैं मैंने जो यह श्रीकृष्ण का चरित वर्णन किया है, वह अति ललित है, यह रसिकों के हृदय में आनन्द का विधान करे।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हरि चरितं (हरे: चरितं यत्र तत्) [अत:] अतिललितं (अतिमनोहरं) श्रीजयदेव-भणितं (श्रीजयदेवोक्ति:) रसिकजनं (श्रीकृष्णलीलारहस्यरसज्ञं भक्तजनं) सुखयतु (सुखी-करोतु) ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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