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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:
अष्टदश: सन्दर्भ:
18. गीतम्
जनयसि मनसि किमिति गुरुखेदम्? अनुवाद- तुम मन-ही-मन इतनी क्षुब्ध क्यों हो रही हो? मेरी बात सुनो, मैं बिना किसी भेद के तुमसे हित की बात कहती हूँ। पद्यानुवाद बालबोधिनी- सखी की ये सब बात सुनकर भी श्रीराधा दु:खी हो रही थीं, तब सखी ने पुन: कहा हे प्रिय सखि! मन में इतना द्वेष क्यों भरा हुआ है, क्यों व्यर्थ की आशंकाएँ तुम्हारे मन में उठ रही हैं? इतना भारी दु:ख क्यों कर रही हो इस विदारक विरह से तुम इच्छारहित चेष्टारहित अभिलाषारहित हो गई हो। देखो, मेरी बात सुनो, मैं तुम्हारा अहित नहीं चाहती हूँ यह समझ लो। तुममें और श्रीकृष्ण में किसी भी प्रकार का भेद नहीं है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [एतदाकर्ण्य खिद्यन्तीं प्राह]- किमिति (कथं) मनसि (चित्ते) गुरुखेदं (महत् कष्टं) जनयसि (सहसे इत्यर्थ:) [नैव विधेयम्]; अनीहितभेदं (अनीहितम् अचेष्टित-मनभिलषितमिति यावत् विरहदु:खं तस्य भेदो यस्मात् तादृशं; यथा युवयो: पुनरपि विरहो न भवेदेवम्भूवमित्यर्थ:) मम
वचनं शृणु [तथा सति पुनस्ते विरहदु:खं मा भवितेत्यर्थ:] ॥6॥
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