गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 355

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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किमिति विषीदसि रोदिषि विकला?
विहसति युवतिसभा तव सकला
माधवे... ॥4॥[1]

अनुवाद- तुम इतनी शोकविह्नल होकर क्यों रो रही हो? तुम्हारे विकलता-प्रदर्शक इन हाव भावों को देखकर तुम्हारी प्रतिपक्षी युवतियाँ प्रमुदित हो रही हैं।

पद्यानुवाद
सिसक सिसक रोती हो विकले,
तरुण सखी हँसती है, तरले।
क्यों झूठा अभिमान करो?
मानिनि! मत अब मान करो॥

बालबोधिनी- सखी की बातों को सुनकर श्रीराधा सिसक-सिसक कर रोती हैं, बिलखती हैं। तब सखी कहती है हे राधे! इस समय तुम विषाद क्यों कर रही हो, क्यों बिलख रही हो? तुम्हारी प्रतिपक्षी युवतियाँ तुम्हारे इन हाव-भावों को देखकर तुम्हारा उपहास कर रही हैं। कितनी नादान हो तुम, साक्षात् श्रीहरि तुम्हारे चरणों में लुण्ठन कर रहे हैं और तुम रोती ही जा रही हो।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [एतदाकर्ण्य साश्रुनेत्रां प्रत्याह]- विकला (व्याकुला) [सती] किमिति (किमर्थं) विषीदसि (विषण्णा भवसि) रोदिषि च [माविषीद मारोद इत्यर्थ:]; [तव एवं व्याकुलतामवलोक्य] सकला (समग्रा) युवति सभा (प्रतिपक्ष-युवति-समूह:) विहसति (विशेषेण हसति) ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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