गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 354

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

नवम: सर्ग:
मुग्ध-मुकुन्द:

अष्टदश: सन्दर्भ:

18. गीतम्

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कति न कथितमिदमनुपदमचिरम्।
मा परिहर हरिमतिशय-रुचिरम्
माधवे... ॥3॥ [1]

अनुवाद- मैं तुम्हें कितनी बार कह रही हूँ कि तुम निरतिशय सुन्दर मनोहर श्रीहरि का परित्याग मत करो।

पद्यानुवाद
हरि-तन कलित ललित हियहारी,
भूलो मान, बनो बलिहारी,
विनती इतनी कान धरो।
मानिनि! मत अब मान करो॥

बालबोधिनी- सखी कहती है- हे राधे! मैं तुम्हें पुन: पुन: समझा रही हूँ कि तुम मान मत करो। श्रीहरि रूप-लावण्य में सबसे सुन्दर हैं तुम अपना मान छोड़कर उनका अभिसरण करो, अपना मनोभाव बदलो, श्रीहरि अतिशय रुचिर हैं, सबके मन को हर लेने वाले हैं, उनका त्याग कभी भी उचित नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [तदुपदेशं बिना इत्थं क्रियते इत्याह]- इदम् अनुपदम् (पदे पदे) अचिरम् (अधुनैव) कति (कतवारं) मया न कथितम् [यत्] अतिशय-रुचिरं (अतिसुन्दरं) हरिं (मनोहरणशीलं) मा परिहर (मा त्याक्षी:) ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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