गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 337

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

अष्टम: सर्ग:
विलक्ष्यलक्ष्मीपति:

सप्तदश: सन्दर्भ:

17. गीतम्

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बहिरिव मलिनतरं तव कृष्ण मनोऽपि भविष्यति नूनम्।
कथमथ वञ्चयसे जनमनुगतमसमशरज्वरदूनम्॥
हरि हरि याहि माधव..... ॥6॥[1]

अनुवाद- हे कृष्ण! जैसे तुम्हारा शरीर मलिन है, वैसे ही तुम्हारा मन भी अवश्य ही मलिन हो गया होगा। यदि ऐसा न होता तो मदन-शर से जर्जरित अपने अनुगत (आश्रित) जन की इस प्रकार वञ्चना न करते।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [सौरभलुब्धभ्रमरेण दृष्टोऽयमधरो नतु अन्यनायिका-चुम्बनादितिचेत्र, तदपि न]- हे कृष्ण तव [मलिनात्मकं] मन: अपि बहिरिव बाह्यं शरीरमिव) नूनं (निश्चितं) मलिनतरं (कृष्णं) भविष्यति। अथ (अन्यथा) अनुगतं (त्वदेकायत्तं) असम-शर-ज्वरदूनं (असमशरस्य कामस्य ज्वरेण दूनं सन्तप्तं) [मां] कथं वञ्चय से (प्रतारयसि) (शुद्धान्त:करणस्य नेयं रीतिरित्यर्थ:] ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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