गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 322

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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प्रातर्नील-निचोलमच्युतमुर संवीत पीतांशुकं
राधायाश्चकितं विलोक्य हसति स्वैरं सखीमण्डले।
ब्रीडाचञ्चलमञ्चलं नयनयोराधाय राधानने
स्मेरस्मेरमुखोऽयमस्तु जगदानन्दाय नन्दात्मज: ॥4॥ [1]

इति षोडश सन्दर्भ:।
इति श्रीगीतगोविन्द महाकाव्ये विप्रलब्धा वर्णने
नागर-नारायणो नाम सप्तम: सर्ग:।

अनुवाद- प्रात:काल विभ्रमवश श्रीकृष्ण ने श्रीराधा जी का नील उत्तरीय वस्त्र (कञ्चुक) तथा श्रीराधा ने अपने वक्ष:स्थल पर श्रीकृष्ण का पीत उत्तरीय वस्त्र धारण कर लिया, जिसे देख सखीमण्डल स्वच्छन्दतापूर्वक हँसने लगा। उन्हें हँसता हुआ देखकर श्रीकृष्ण ने मन्दमुस्कान के साथ सलज्ज होकर अपांग - भंगिमा से श्रीराधा के मुखारविन्द के प्रति कटाक्षपात किया। ऐसे नन्दनन्दन श्रीकृष्ण जगत के लिए आनन्द का विधान करें।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [अथैतद्दु:खवर्णनमसहिष्णु: कवि: सिंहावलोकन्यायेन साधारण-केलिरात्रै: प्रातश्चरितवर्णनेन श्रीराधाया: खण्डितावस्थां वर्णयिष्यन् श्रीराधामाधवयो: प्राक्तन-केल्यनन्तरावस्थितिवर्णनेन मंगलमातनोति]- [कदाचित्] प्रात: (प्रभाते) नीलनीचोलं (नीलं निचोलं वस्त्रं यस्य तादृशं परिहित-राधावसनमित्यर्थ:) अच्युतं (हरिं) [तथा] संवीतपीतांशुकं (संवीतम् उत्तरीकृतं श्रीकृष्णस्य पीतम् अंशुकं वस्त्रं यत्र तादृशं) राधाया उर: (वक्ष:स्थलं) विलोक्य सखीमण्डले स्वैरं (स्वच्छन्दम् उच्चैरित्यर्थ:) तथा चकितं (चमत्कृतं यथा तथा) हसति [सति] राधानने (श्रीराधावदने) ब्रीड़ाचञ्चलं (ब्रीड़या लज्जया चञ्चलं यथा तथा) नयनयो: अञ्चलं (नेत्रप्रान्तं कटाक्षमित्यर्थ:) आधाय (विन्यस्य) स्मेर-स्मेर-मुख: (मृदुमन्दसहास्यवदन:) अयं नन्दात्मज: (नन्दनन्दन:) जगदानन्दाय अस्तु (जगतामानन्दं विदधातु) [अत: सर्गोऽयं नागरा एव नरा नरसमूहास्तेषामयनं मूलभूत: श्रीकृष्णो यत्र स इति सप्तम: सर्ग:] ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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