गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 312

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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सजल-जलद-समुदय-रुचिरेण ।
दहति न सा हृदि विरह-दवेन ॥
सखि! या रमिता.... ॥5॥ [1]

अनुवाद- वनमाली श्रीकृष्ण सजल-जलद-मण्डल से भी मनोहर कान्तिमय एवं सुकुमार हैं। उन श्रीकृष्ण के साथ जिस वरांगना ने रमण किया, उसे दीर्घकालिक विरह के विषभार से कभी भी संदलित नहीं होना पड़ता।

बालबोधिनी- सखि, जिनका स्वरूप नवीन बादल के समान अतिशय मनोहर है, अति सुकुमार है, उनसे जो रमणी संभुक्ता हुई, उसे विरहरूपी विष से कदापि भय नहीं रहता। वे तो जलवर्षी मेघ के समान उस पर बरस रहे हैं, वह क्या जानेगी कि यह दीर्घकालिक विरह कितना विदलित करता है, कितना विदीर्ण करता है।

निन्दापरक अर्थ में जो गोपी नवजलधर सदृश कान्तिवान श्रीकृष्ण के साथ रमण नहीं कर सकी, वह इस दीर्घकालिक विरह के तीव्र-विष से दु:खी नहीं होगी क्या? अवश्य ही दु:खी होगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- सजल-जलद-समुदय-रुचिरेण (सजल-जलदानां समुदयात् समूहादपि रुचिरेण सुन्दरेण) वनमालिना या रमिता सा विरह-दवेन हृदि न दहति (भस्मीभवति) [जलदवदार्द्रतया दाहासम्भवात्]; पक्षान्तरे-या अरमिता सा विरहदवे (विरहानले) जलति सति हृदि न दहति इति न; [अपि तु दहत्येव इत्यर्थ:]। नवमेघस्य विरहोद्दीपकत्वात्] ॥5॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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