गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 311

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

16. गीतम्

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स्थल-जलरुह-रुचि-कर-चरणेन।
लुठति न सा हिमकरकिरणेन ॥
सखि! या रमिता.... ॥4॥ [1]

अनुवाद- वनमाली श्रीकृष्ण के कर एवं चरण स्थल-कमल के समान कान्तिमय एवं सुशीतल हैं, उनसे जो रमणी संभुक्ता हुई है, उसे चन्द्र-किरणों से सन्तापित होकर पृथ्वी पर लुण्ठन नहीं करना पड़ता।

बालबोधिनी- श्रीराधा सखि से कहती है हे सखि, श्रीकृष्ण के कर-तल एवं पद-तल स्थलकमल के समान कान्तिमय एवं सुशीतल हैं। उनके साथ रमण करने वाली रमणी कैसे जानेगी कि चन्द्रमा की शीतल किरणें कैसे दहकती हैं, वह उस विधु-कौमुदी से संतप्त होकर रात भर शय्या पर करवट क्यों बदलती होगी? निन्दापरक के अर्थ में, स्थल-कमल के समान अंगों वाले श्रीकृष्ण की आलिंगन प्राप्ति के लिए वह रात भर करवटें बदलती रहती होगी।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- स्थल-जलरुह-रुचि-कर-चरणेन (स्थल जलरुहस्य स्थलपद्मस्य रुचिरिव रुचि: कान्ति: यस्य तादृशं कर-चरणं पाणिपादं यस्य तादृशेन) वनमालिना या रमिता सा हिमकरकिरणेन (चन्द्रकिरणेन) न लुठति (मूर्च्छिता भूतले न परिवर्त्तते) [इन्दुकिरणानाम् उज्ज्वलतया तापकत्वावगमे पि स्थलकमलवत् शीतल-करचरणस्पर्शसुखेनेति भाव:]; पक्षान्तरे या अरमिता सा हिमकरकिरणे [किरणं विकिरति सति न लुठति इति न, अपि तु लुठत्येव] [तादृश-करचरणस्पर्शाभावादिति भाव:]॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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