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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
पंचदश: सन्दर्भ
16. गीतम्
स्थल-जलरुह-रुचि-कर-चरणेन। अनुवाद- वनमाली श्रीकृष्ण के कर एवं चरण स्थल-कमल के समान कान्तिमय एवं सुशीतल हैं, उनसे जो रमणी संभुक्ता हुई है, उसे चन्द्र-किरणों से सन्तापित होकर पृथ्वी पर लुण्ठन नहीं करना पड़ता। बालबोधिनी- श्रीराधा सखि से कहती है हे सखि, श्रीकृष्ण के कर-तल एवं पद-तल स्थलकमल के समान कान्तिमय एवं सुशीतल हैं। उनके साथ रमण करने वाली रमणी कैसे जानेगी कि चन्द्रमा की शीतल किरणें कैसे दहकती हैं, वह उस विधु-कौमुदी से संतप्त होकर रात भर शय्या पर करवट क्यों बदलती होगी? निन्दापरक के अर्थ में, स्थल-कमल के समान अंगों वाले श्रीकृष्ण की आलिंगन प्राप्ति के लिए वह रात भर करवटें बदलती रहती होगी। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- स्थल-जलरुह-रुचि-कर-चरणेन (स्थल जलरुहस्य स्थलपद्मस्य रुचिरिव रुचि: कान्ति: यस्य तादृशं कर-चरणं पाणिपादं यस्य तादृशेन) वनमालिना या रमिता सा हिमकरकिरणेन (चन्द्रकिरणेन) न लुठति (मूर्च्छिता भूतले न परिवर्त्तते) [इन्दुकिरणानाम् उज्ज्वलतया तापकत्वावगमे पि स्थलकमलवत् शीतल-करचरणस्पर्शसुखेनेति भाव:]; पक्षान्तरे या अरमिता सा हिमकरकिरणे [किरणं विकिरति सति न लुठति इति न, अपि तु लुठत्येव] [तादृश-करचरणस्पर्शाभावादिति भाव:]॥4॥
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