गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 309

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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पद्यानुवाद
अनिल तरुण मृदु जलज नयनके,
विकसित सरसिज ललित वदनके,
अमिय ममार अति मंजु वचनके,
थल जलरुहसे रुचिर चरणके।
मिले, जिसे हैं सरस भावसे, उसे, कभी वनमाली,
पल्लव 'स्मर शर' 'मलय' चन्द सब जला न पाते आली।

‘‘‘बालबोधिनी’’’- श्रीराधा सखी से कहती है प्रफुल्लित अरविन्दवत् विलसित मुखकमल वाले वनमाली श्रीकृष्ण जिस रमणी को आनन्द दे रहे हैं, वह क्यों जानेगी कि मदन के बाणों की व्यथा कैसी होती है? किस प्रकार मैं विरह से पीडित हो रही हूँ, उस रमिता का काम के बाणों से सन्तप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। कैसा हृदय विदीर्ण कर दिया है मेरा यह स्तुतिपरक व्याख्या है।

निन्दापरक अर्थ में वे श्रीकृष्ण तो विलासपराङ्मुख हैं, हास्यपरायण हैं, अपने मनोहर मुख से बस हास-परिहास करते रहते हैं, उनके साथ रमण न कर पाने से वह गोपिका क्या मदन-शरों से सन्तप्त नहीं होती क्या? अवश्य ही होती है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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