गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 308

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

अथ षोड़ष: सन्दर्भ:

16. गीतम्

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विकसित-सरसिज-ललित-मुखेन ।
स्फुटति न सा मनसिज-विशिखेन-
सखि! या रमिता... ॥2॥[1]

अनुवाद- प्रफुल्लित कमल के समान सुललित मुख वाले वनमाली श्रीकृष्ण के द्वारा जो सुन्दरी संभुक्ता हुई है, उसे कन्दर्प के विषम बाण कभी भेद नहीं सकते। अथवा विलासकला-पराङ्मुख केवल हास्य-परायण श्रीकृष्ण के साथ रमण न कर सकने वाली वह गोपी का काम के विषमबाणों से क्या बिद्ध नहीं होती? अपितु होती ही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- विकसित-सरसिज-ललित-मुखेन (विकसितं यत् सरसिजं पद्मं तद्वत्र ललितं मनोहरं मुखं यस्य तादृशेन) वनमालिना या रमिता, सा मनसिज-विशिखेन (मन्मथशरेण) न स्फुटति (न विदीर्यते)। [पक्षान्तरे या अरमिता सा (सादृशी भाग्यहीना नारी) मनसिज-विशिखे न स्फुटति इति न, अपि तु स्फुटत्येव] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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