गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 301

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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इह रस-भणने कृत-हरि-गुणने मधुरिपु-पद-सेवके।
कलि-युग-रचितं न वसतु दुरितं कविनृप जयदेवके
रमते यमुना-पुलिन वने..... ॥8॥[1]

अनुवाद- श्रृंगार-रस से परिपूर्ण श्रीकृष्ण की लीला-कथाओं का कीर्तन करने वाले, मधुसूदन के सेवक मुझ कविराज जयदेव में कलियुग आचरित दुरित दोष प्रविष्ट न हों।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- रसभणने (रसस्य श्रृंगाररसस्य भणनं कथनं यत्र तस्मिन्) कृत हरे गुणनं (कृतं हरे: गुणनं गुणकीर्त्तनं येन तादृशे) मधु-रिपु-पद-सेवके (श्रीकृष्णपदसेवके) इह (अस्मिन्) कविनृप-जयदेव के (कविश्रेष्ठ-जयदेवे) कलियुग-चरितं (कलि-युगधर्म-वशादाचरितं) दुरितं (पापं) न वसतु ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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