गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 290

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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घनचय-रुचिरे रचयति चिकुरे तरलित-तरुणानने।
कुरुबक-कुसुमं चपला-सुषमं रतिपति-मृग-कानने-
रमते यमुना-पुलिन वने..... ॥2॥[1]

अनुवाद- मदन-मृग के विहार-कानन-स्वरूप उस युवति के मेघ-समूह के समान मनोहर कुन्तल (केशपाश) हैं, जिससे उसका तरुण करुण आनन सतत उल्लसित होता है, उनमें वे कुरुवक कुसुम सन्निवेशित कर रहे हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [न केवलं तस्या वदने तिलकं लिखति अपितु]-घनचय-रुचिरे (मेघचयवत् रुचिरे शोभने) तरलित-तरुणानने (तरलितं, चञ्चलितं तद्गुणवर्णने मुखरीकृतमित्यर्थ: तरुणस्य श्रीहरे: आननं मुखं येन तत्र) [तथा] रतिपति-मृगकानने (रतिपति: कामएव मृग: तेन सदाश्रितत्त्वात् तस्य कानने विचरणस्थाने, कामोद्दीपके इतिभाव:) तस्या: चिकुरे (कुन्तले) चपला-सुषमं (चपलाया विद्युतइव सुषमा परमा शोभा यस्य तादृशं) कुरुबककुसुमं (रक्तझिण्टीपुष्पं) रचयति (तत्पुष्पै: तस्या: कवरीं ग्रथ्नातीत्यर्थ:) ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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