गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 288

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

पंचदश: सन्दर्भ

15. गीतम्

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गुर्जरीरागैकतालीतालेन गीयते।

अनुवाद- गीत-गोविन्द काव्य का यह पन्द्रहवाँ प्रबन्ध गुर्जरी राग तथा एकताली ताल से गाया जाता है। इस गीति में श्रीकृष्ण के साथ विलास करने वाली रमणी को स्वाधीन-भर्त्तृका के रूप में दिखाया गया है, जो यमुना-पुलिन में श्रीकृष्ण के साथ विलास-परायणा है।

समुदित-मदने रमणी-वदने चुम्बन-वलिताधरे।
मृगमदतिलकं लिखति सपुलकं मृगमिव रजनीकरे॥
रमते यमुना-पुलिन-वने विजयी मुरारिरधुना ॥1॥ध्रुरवम्[1]

अनुवाद- रतिरण में विजयी मधुरिपु यमुना-पुलिन के वन में प्रिया के साथ रमण कर रहे हैं, पुलकावलियों से पूर्ण काम की उद्दीपन-स्वरूपा उस रमणी के वदन में चन्द्रमण्डल के ऊपर मृगलाञ्छन की भाँति कस्तूरी तिलक की रचना कर रहे हैं एवं रोमाञ्चित हो उसका चुम्बन कर रहे हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [पुनस्तस्या एव स्वाधीन-भर्त्तृकात्वं सूचयन् तल्लीलाविशेषमाह]- अधुना (इदानीं) विजयी (जयशील: मण्डनादि-कौशलेन सर्वातिशायी) मुरारि: (श्रीहरि:) यमुनापुलिनवने (यमुनाया: पुलिनवर्त्तिनि कानने) तया सह रमते (क्रीड़ति); [तथाच] समुदितमदने (समुदित: सम्यक् वृद्दिंगत: मदन: यस्मात् तस्मिन् कामोद्दीपके इत्यर्थ:; चन्द्रपक्षेऽपि स एवार्थ:) चुम्बन-वलिताधरे (वदनपक्षे तिलकं लिखित्वा साध्विदं वदनमित्युक्त्वा चुम्बनाय वलिता विन्यस्त: अधरो यत्र, चन्द्रपक्षे चुम्बनेन वलितो युक्तो धर: यस्मात्र इत्यर्थ:) रमणी-वदने (तस्या एव कामिन्या: वदने) रजनीकरे (चन्द्रे) मृगमिव सपुलकं (सरोमाञ्चं स्पर्शेन जातरोमाञ्चं यथास्यात् तथा) मृगमदतिलकं (मृगमदस्य कस्तूरिकाया: तिलकं) लिखति (ददाति) ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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