गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 284

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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श्रमजल-कण-भर-सुभग-शरीरा।
परिपतितोरसि रति रण-धीरा
कापि मधुरिपुणा... ॥7॥[1]

अनुवाद- रतिरसनिपुण वह कामिनी सुरत-क्रीड़ा जन्य पसीने की बूँदों से और भी सुन्दर लगती होगी, रतिक्रिया में धैर्य धारण करने वाली वह रतिश्रमश्रान्ता श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर निपतिता होकर कितनी शोभा पा रही होगी।

पद्यानुवाद
श्रमजल कण भर सुभग शरीरा।
हरि-उर पतित सुरति रणधीरा॥
शोभित है युवती री कोई।
हरिसे विलस रही जो खोई॥

बालबोधिनी- अनंग आवेश में वह पूर्ण रूप से थक गयी होगी। सुरतायासजन्य श्रमबिन्दुओं से उसका मुखारविन्द कैसा चमकता होगा? स्वयं को विस्मृत होकर सुरतक्रियारूपी रण में दक्ष वह श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर गिर गयी होगी, उसकी शोभा कैसी अद्भुत हो रही होगी।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- श्रम-जल-कण-भर-सुभग-शरीरा (श्रमजलकणभरेण सुरतश्रमजात-स्वेदवारिबिन्दुसमूहेन सुभगं सुन्दरं शरीरं यस्या: सा) [तथा] रतिरणधीरा (सुरतसंग्रामे धीरा पण्डिता) [नि:सहता-विस्मृत-स्वांगानुसन्धानतया] उरसि (कान्तस्य वक्षसि) परिपतिता ॥7॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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