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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
चतुर्दश: सन्दर्भ
14. गीतम्
श्रमजल-कण-भर-सुभग-शरीरा। अनुवाद- रतिरसनिपुण वह कामिनी सुरत-क्रीड़ा जन्य पसीने की बूँदों से और भी सुन्दर लगती होगी, रतिक्रिया में धैर्य धारण करने वाली वह रतिश्रमश्रान्ता श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर निपतिता होकर कितनी शोभा पा रही होगी। पद्यानुवाद बालबोधिनी- अनंग आवेश में वह पूर्ण रूप से थक गयी होगी। सुरतायासजन्य श्रमबिन्दुओं से उसका मुखारविन्द कैसा चमकता होगा? स्वयं को विस्मृत होकर सुरतक्रियारूपी रण में दक्ष वह श्रीकृष्ण के वक्ष:स्थल पर गिर गयी होगी, उसकी शोभा कैसी अद्भुत हो रही होगी।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- श्रम-जल-कण-भर-सुभग-शरीरा (श्रमजलकणभरेण सुरतश्रमजात-स्वेदवारिबिन्दुसमूहेन सुभगं सुन्दरं शरीरं यस्या: सा) [तथा] रतिरणधीरा (सुरतसंग्रामे धीरा पण्डिता) [नि:सहता-विस्मृत-स्वांगानुसन्धानतया] उरसि (कान्तस्य वक्षसि) परिपतिता ॥7॥
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