विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
चतुर्दश: सन्दर्भ
14. गीतम्
पद्यानुवाद बालबोधिनी- आशंकिता श्रीराधा सखी से कहती हैं हे सखि! मुझसे भी अधिक कोई सुन्दर रमणी काम-संग्राम के अनुकूल वेश धारण कर मधुरिपु के साथ विलास कर रही है। रतिक्रीड़ा में उसके केशपाश ढीले होकर इधर-उधर लहरा रहे हैं, उसमें से ग्रंथित पुष्प भी झर गये हैं। मधुरिपु श्रीकृष्ण माधुर्य के शत्रु हैं, उनको माधुर्य का भान ही नहीं है। इसलिए वे मेरी उपेक्षा करके किसी दूसरी युवती के साथ रतिविलास में लिप्त हैं। युवतिरधिकगुणा- वह व्रजरमणी मुझसे भी अधिक गुणशालिनी है, पर यह तो संभव ही नहीं है। अधिक गुणों का व्यंगार्थ है- कम गुणों वाली युवती रमण कर रही है, यह बड़े आश्चर्य की बात है। इससे विपरीत रति सूचित होती है। विपरीत रति में युवती का ही रतिकर्तृत्व रहता है। स्मरसमर-रतिकेलि को स्मर-समर कहा गया है। रतिक्रीड़ा में रति-विमर्दन आदि क्रिया होती है, जिससे नायिका का कबरी बन्धन खुल जाता है, उसमें सन्निहित पुष्प झर जाते हैं, विशृंखलित हो जाते हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |