गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 277

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

चतुर्दश: सन्दर्भ

14. गीतम्

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वसन्तरागयतितालाभ्यां गीयते।

अनुवाद- यह चौदहवाँ प्रबन्ध वसन्त राग तथा यति ताल के द्वारा गाया जाता है।

समर-समरोचित-विरचित-वेशा,
दलित-कुसुम-दर विलुलित केशा।
कापि मधुरिपुणा
विलसति युवतिरधिकगुणा ॥1॥ध्रुवम्॥[1]

अनुवाद- सखि! मदन-समर के योग्य वेशभूषा का परिधान किये हुए और अनंग-रस के आवेश में कबरी-बन्धन आलुलायित होने (बिखर जाने) के कारण कुसुमसमूह विगलित होने से विमर्दित केशों वाली मुझसे भी अधिक गुणशालिनी कोई युवती मधुरिपु के साथ सुखपूर्वक विलास कर रही है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- हे सखि स्मर-समरोचित-विरचित-वेशा (स्मरसमरस्य उचितो विरचितो वेशो यया सा) [ततश्च रणावेशेन] दलित-कुसुम-दर-विलुलित-केशा (दलितानि विमर्दितानि कुसुमानि येभ्य: तादृशा: दरविलुलिता: ईषद्विस्रस्ता: केशा यस्या: तादृशी) कापि अधिकगुणा (मत्तेऽपि अधिकगुणवती) युवति: मधुरिपुणा सह विलसति ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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