गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 27

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

प्रथम सर्ग
सामोद-दामोदर

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इस प्रकार यह प्रबन्ध सर्व-चित्ताकर्षक है। इस पद की व्युत्पत्ति में श्रीश्च वासुदेवश्च श्रीवासुदेवौ तयो रतिकेलि कथा: ताभि: समेतम।

अब प्रश्न होता है - इस प्रबन्ध का वर्णन कैसे हुआ है? इसके उत्तर में वाणी एवं वक्तव्य रूप में केलि कलामय देवता, वक्ता एवं प्रवर्त्तक स्वयं श्रीकृष्ण जिनकी चित्तरूपी कन्दरा में सदा अवस्थित हैं, जिनकी इन्द्रियों के अधिष्ठातृ देवता श्रीकृष्ण उनमें शक्ति का सञ्चार करते हैं, ऐसे श्रीजयदेवजी अपने इष्ट देव को वाग्रदेवता के रूप में निरूपित कर रहे हैं। अतएव इस काव्य की रचना में श्रीकृष्ण का ही कर्त्तृत्व है।

श्रीजयदेव के चित्त - सद्म में समस्त लीलाएँ चित्रपट की भाँति संग्रथित हैं। चित्रकार के हृदय में जो स्फूर्त्ति होती है और चित्रफलक में जो उदित होता है वही चित्ररूप में बन जाता है, उसी प्रकार यह केलिचित्रण श्रीजयदेवजी की लेखनी पर अधिष्ठित होकर अंकित हुआ है। कवि का चित्तरूपी सद्म विलक्षण है तथा विचित्र कविता रूपी महाधन का भण्डार है और श्रीराधामाधव के केलि-चरित्रों से चित्रित है। कवि की वाणी और मन भी माधव परायण है। अत: निज कर्त्तृत्व का उनके द्वारा परित्याग कर दिया गया है।

अब पुन: प्रश्न होता है कि यह सब होने पर भी ऐसी चित्रण-शक्ति कहाँ से आई? इसके उत्तर में कहते हैं श्री जयदेवजी की कायिकी-वृत्ति श्रीराधापरायणा अर्थात्र श्रीराधाजी की प्रेरणा ही उनकी इन्द्रिय शक्ति है। श्रीराधा किस प्रकार उनमें अवस्थित हैं? उत्तर में श्रीराधाजी पद्मावती हैं। पद्मं करे अस्ति यस्या: सा यह पद्मावती शब्द की व्युत्पत्ति है अर्थात्र जिसके हाथ में कमल विद्यमान है, वे श्रीराधाजी ही पद्मावती हैं। इन श्रीराधाजी के चरण कमलों की प्राप्ति की लालसा से चारण चक्रवर्त्ती नर्त्तक-श्रेष्ठ नट-सार्वभौम श्रीजयदेव जी अपनी वाणीरूपी नृत्य-कला के द्वारा सदा उनकी आराधना में तत्पर हैं। इस प्रसंग से यह भाव भी व्यक्त हो रहा है कि कविराज जी प्रधान रूप से श्रीराधाजी के उपासना-परायण हैं। एक और भी गूढ़ रहस्य है कि महाकवि श्रीजयदेवजी की पत्नी का नाम भी पद्मावती है। वे श्रीराधामाधव युगल की उच्चकोटि की प्रेममयी आराधिका हैं। उन श्रीपद्मावतीजी के प्रति भी महाकवि अपनी कृतज्ञता प्रकाश कर रहे हैं

प्रस्तुत श्लोक में चित्त तथा सद्म का अभेद रूप होने से रूपकालप्रार है तथा अनुज्ञालप्रार भी। वसन्ततिल का छन्द, ओज गुण, गौड़ीया रीति, भारती वृत्ति तथा संभाविता गीति है॥2॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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