गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 266

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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मम मरणमेव वरमिति-वितथ-केतना।
किमिति विषहामि विरहानलमचेतना
यामि हे! कमिह... ॥3॥[1]

अनुवाद- यह शरीर धारण करना व्यर्थ है, मुझे मर जाना चाहिए। मैं अचेत हो रही हूँ, अब यह दु:सह विरहानल कैसे सहन करूँ?

पद्यानुवाद
विरह-अनल में जलूँ कहाँ तक? हुआ विधाता वाम।
मरना ही अच्छा है अब तो, व्यर्थ हुई बदनाम॥

बालबोधिनी- मैं भ्रष्ट हो रही हूँ, जिनके साथ संगम के लिए मैं घोर अन्धकारपूर्ण रात्रि-काल में गम्भीर वन में बैठी रही, विह्नल और अचेतन हो गयी, मैं उनके विरह से कितनी अधीर हो रही हूँ, मैं कहाँ जाऊँ, मेरा तो मरना ही अच्छा है, कितना विरह ताप सहन करूँ मैं, आशा के सभी संकेत झूँठे हो गये हैं। मेरा यह शरीर व्यर्थ ही है, नहीं तो हरि ऐसी उपेक्षा नहीं करते, सखी की बातों में आकर मैंने यहाँ आने का साहस कर लिया, पर मेरे सारे प्रयास व्यर्थ हैं, जीना व्यर्थ है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अति-वितथ-केतना (अतिवितथं नितान्तव्यर्थं केतनं देह: यस्या: तादृशी) कृष्णविरहेण अचेतना च अहम् इह (अधुना) किं (कथं) विरहानलं विषहामि अत: मरणमेव वरं (श्रेष्ठम्) ॥3॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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