गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 264

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

13. गीतम्

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मालवराग-यतितालाभ्यां गीयते।

अनुवाद- यह तेरहवाँ प्रबन्ध मालव राग तथा यति ताल में गाया जाता है।

कथित-समयेऽपि हरिरहह न ययौ वनं।
मम विफलमिदममलमपि रूपयौवनं
यामि हे! कमिह शरणं सखीजन-वचन-वञ्चिता ॥1॥धु्रवम्र![1]

अनुवाद- मेरा अमल रूप-यौवन व्यर्थ ही है, क्योंकि संकेत-काल में हरि वन में नहीं आये। सखियों से वञ्चित अब मैं किसकी शरण में जाऊँ?

पद्यानुवाद
बीत रहा संकेत-समय पर वे न कुंजमें आये
विफल रूप यौवन नव मेरा जो न उन्हें यह भाये।
मैं भोली ठग गयी सखीके आश्वासन वचनों में
अब किसकी शरणों में जाऊँ भूली-सी सपनों में॥

बालबोधिनी- विरह-वेदना की अतिशय तीव्रता का अनुभव करती हुई श्रीराधा को अत्यन्त सन्ताप हो रहा है- सखी! तुमने तो कहा था मैं उन्हें अभी लेकर आती हूँ, तुम यहीं रहो, पर तुमने भी मेरी प्रताड़ना कर दी। चन्द्रोदय से पहले यहाँ संकेत कुंज में आने की बात थी, अब तो चन्द्रमा गगन में अधिकाधिक उठता जा रहा है, तुम्हारे झूठे आश्वासनों ने मुझे ठग लिया है। मेरा यह निर्मल-अनवेद्य रूप-यौवन व्यर्थ ही प्रतीत होता है। यदि ये सार्थक होते तो वे अवश्य यहाँ उपस्थित होते।

'अहह' पद से श्रीराधा का गहन कष्ट सूचित होता है। हे शब्द का प्रयोग सम्बोधनपरक है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- अहह (खेदे) कथित-समये (निर्धारित-समये, चन्द्रानुदय-काले इत्यर्थ:) हरि: (मन्मनोहर:) मन्मनो हृत्वा इत्यर्थ: वनमपि न ययौ कुतोऽत्रगमनमित्यर्थ: इदं मम रूपयौवनं विमलमपि (अनवद्यमपि) तेन बिना विफलम् (व्यर्थम्); अतएव हे नाथ सखीगण-वचन-वञ्चिता (कृष्ण इह अचिरेणैव स्वयमायास्यतीति सखीजनस्य आश्वासवचनेन वञ्चिता विप्रलब्धा) अहम् इह (अधुना) कं शरणं यामि ॥1॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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