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श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:
त्रयोदश: सन्दर्भ
प्रसरति शशधर-बिम्बे विहित-विलम्बे च माधवे विधुरा। अनुवाद- शशधर मण्डल पूर्ण रूप से उदित हो गया है, माधव आने में विलम्ब कर रहे हैं, इसीलिए श्रीराधा विरह में सन्तप्त होकर विविध प्रकार का उच्च-स्वर से विलाप करती हुई बहुत अधिक परितापित होने लगीं। पद्यानुवाद बालबोधिनी- चन्द्रमा के उदित होते ही माधव के आने की आशा क्षीण होने लगी, अतएव श्रीराधा उनके विरह से बड़ी सन्तप्त हो गयीं। उसी सन्ताप का वर्णन करते हुई सखी कहती है अतिशय विधुर भाव से श्रीराधा बड़ी सन्तप्त होकर उच्च-स्वर से विलाप करने लगीं। चन्द्रमा का बिम्ब विस्तीर्ण हो रहा था और माधव श्रीराधा से मिलने को आने के लिए विलम्ब कर रहे थे, व्याकुल श्रीराधा फूट-फूटकर बिलखने लगीं। प्रस्तुत श्लोक में आर्या छन्द है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- शशधर-विम्बे (चन्द्रमण्डले) प्रसरति (उद्रगच्छति) माधवे (कृष्णे) कृतविलम्बे (आगमने विलम्बं कृतवतिच) सति विधुरा (विरहाकुला) राधा उच्चै: विरचित-विविध-विलापं (विरचित: कृत: विविध: विलाप: विविधशप्रारूप: यस्मिन् तद्र यथा तथा) परितापं चकार ॥2॥
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