गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 262

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

सप्तम: सर्ग:
नागर-नारायण:

त्रयोदश: सन्दर्भ

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पद्यानुवाद
इसी समय 'कुलटा कुल' का 'संकेत-गमन' अवरोधे।
प्रकटित कर लाञ्छन-श्री अपनी पातक को परिशोमो॥
वृन्दावन के कुंज मध्य अब इन्दु अंशसह ह्रासे।
दिशा-सुन्दरी के मुख पर ज्यों चन्दन-बिन्दु विलासे॥

बालबोधिनी- मानिनियों के मान का खण्डन करने वाले पूर्ण चन्द्रोदय-मण्डल का वर्णन करते हुए कवि कहते हैं- जिस समय श्रीराधा श्रीकृष्ण के विरह में सन्तप्त हो रही थीं, उसी समय पूर्ण चन्द्रमा ने वृन्दावन को अपनी किरणों से प्रकाशित कर दिया। कुलटा-कामिनियों के मार्ग में बाधा उत्पन्न करने के कारण जिस चन्द्रमा को पाप लग गया है, वह पाप उसकी मृगलाञ्छनश्री से स्पष्ट प्रतीत हो रहा है। अथवा पूर्व दिशा रूपी सुन्दरी के मुखमण्डल को अलंकृत करने वाले चन्दन बिन्दु की भाँति अपने कलंक को धारणकर उस द्विजराज ने समस्त दिशाओं को अपने प्रकाश से अलंकृत कर दिया। अथवा जिस प्रकार चन्दन का बिन्दु सुन्दरी के ललाट को समलंकृत करता है, उसी प्रकार दिशारूपी सुन्दरी को चन्द्रमा ने समलंकृत किया।

पातक इव दूसरे के मार्ग में जो बाधा उत्पन्न करता है, उसे पापी माना जाता है। कुलटाएँ अपने प्रेमियों से मिलने के लिए रात में ही निकलती हैं। अत: चन्द्रमा के उदित होने से अन्धकार प्रकाशित होने लगता है, जिससे कामिनियों के मार्ग में बाधा उत्पन्न होती है। इसी का पाप चन्द्रमा में मृगलाञ्छन के रूप में प्रतीत हो रहा है।

चन्द्रमा एक ओर तो सकलंक है, दूसरी ओर उन्मुक्त दिशाओं का श्रृंगार।

प्रस्तुत श्लोक में वसन्ततिल का छन्द है, रूपक तथा उत्प्रेक्षा अलंकार है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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गीत गोविन्द -श्रील जयदेव गोस्वामी
सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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