विषय सूची
श्रीगीतगोविन्दम् -श्रील जयदेव गोस्वामी
षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:
द्वादश: सन्दर्भ
12. गीतम्
अंगेष्वाभरणं करोति बहुश: पत्रेऽपि सञ्चारिणि अनुवाद- वरतनु श्रीराधा कई बार अपने अंगों में अलंकार धारण करती हैं, पत्तों के संचरित होने पर 'आप आ गये हैं'- इस प्रकार की परिशंका करती है, आपके लिए मृदु शय्या की रचना करती हैं, आपके आने में विलम्ब होने पर अधिक दु:खी होती हैं। इस प्रकार अलंकरण, विकल्प, तल्परचना, प्रेमालाप, संकल्प आदि अनेक प्रकार की लीलाओं में आसक्त रहकर भी आपके विरह में वह रात्रि नहीं बिता पा रही हैं। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अन्वय- [पुनरतिशीघ्रगमनाय तस्या वासकसज्जा-चेष्टितमाह-श्रीकृप्ष्णो मामेवं पश्यन् मन्दमना भविष्यतीति तव अनुरञ्जनाय एषा वरतनु: (वरांगी) अंगेषु बहुश: आभरणं करोति (परिधत्ते); अनागत इति त्यजति च पुनरपि करोति अनेन भूषण-बाहुल्यमित्याकल्प:]; पत्रे सञ्चारिणि अपि (पक्ष्यादिना चलति सति) त्वां प्राप्तं (आगतं) परिशंकते (तर्कयति) [अनेन विकल्प:]; आगता कृष्ण: अत्र शयिष्यते इति शय्यां वितनुते (पारिपाट्येन विचरयति) [अनेन तल्परचना]; चिरं ध्यायति (तव स मरसं चिन्तयतिच) [अनेन संकल्प-लीलाशतम्]; इति (एवंरूपेण) आकल्प-विकल्प-तल्परचना-संकल्प-लीलाशत-व्यासक्तापि (आकल्पस्य भूषणस्य, विकल्पस्य वितर्कस्य, तल्पस्य शय्यायाश्च रचनायां तथा संकल्पलीलाशतेषु परिकल्पित-विलाससमूहेषु व्यासक्तापि विनिवेशितचित्तापि) त्वया बिना निशां न नेष्यति (न यापयिष्यति)। विरहव्याकुलया स्तस्या रात्रियापनमधुना सुदुष्करमिति भाव:] ॥2॥
संबंधित लेख
सर्ग | नाम | पृष्ठ संख्या |