गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 257

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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अंगेष्वाभरणं करोति बहुश: पत्रेऽपि सञ्चारिणि
प्राप्तं त्वां परिशप्रते वितनुते शय्यां चिरं ध्यायति।
इत्याकल्प-विकल्प-तल्प-रचना-सप्रल्पलीला-शत-
व्यासक्तापि विना त्वया वरतनुर्नैषा निशां नेष्यति ॥2॥[1]

अनुवाद- वरतनु श्रीराधा कई बार अपने अंगों में अलंकार धारण करती हैं, पत्तों के संचरित होने पर 'आप आ गये हैं'- इस प्रकार की परिशंका करती है, आपके लिए मृदु शय्या की रचना करती हैं, आपके आने में विलम्ब होने पर अधिक दु:खी होती हैं। इस प्रकार अलंकरण, विकल्प, तल्परचना, प्रेमालाप, संकल्प आदि अनेक प्रकार की लीलाओं में आसक्त रहकर भी आपके विरह में वह रात्रि नहीं बिता पा रही हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [पुनरतिशीघ्रगमनाय तस्या वासकसज्जा-चेष्टितमाह-श्रीकृप्ष्णो मामेवं पश्यन् मन्दमना भविष्यतीति तव अनुरञ्जनाय एषा वरतनु: (वरांगी) अंगेषु बहुश: आभरणं करोति (परिधत्ते); अनागत इति त्यजति च पुनरपि करोति अनेन भूषण-बाहुल्यमित्याकल्प:]; पत्रे सञ्चारिणि अपि (पक्ष्यादिना चलति सति) त्वां प्राप्तं (आगतं) परिशंकते (तर्कयति) [अनेन विकल्प:]; आगता कृष्ण: अत्र शयिष्यते इति शय्यां वितनुते (पारिपाट्येन विचरयति) [अनेन तल्परचना]; चिरं ध्यायति (तव स मरसं चिन्तयतिच) [अनेन संकल्प-लीलाशतम्]; इति (एवंरूपेण) आकल्प-विकल्प-तल्परचना-संकल्प-लीलाशत-व्यासक्तापि (आकल्पस्य भूषणस्य, विकल्पस्य वितर्कस्य, तल्पस्य शय्यायाश्च रचनायां तथा संकल्पलीलाशतेषु परिकल्पित-विलाससमूहेषु व्यासक्तापि विनिवेशितचित्तापि) त्वया बिना निशां न नेष्यति (न यापयिष्यति)। विरहव्याकुलया स्तस्या रात्रियापनमधुना सुदुष्करमिति भाव:] ॥2॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
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तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
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