गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 254

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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श्रीजयदेव-कवेरिदमुदितम्।
रसिकजनं तनुतामतिमुदितम्-
नाथ हरे! सीदति... ॥8॥[1]

अनुवाद- श्रीजयदेव कवि द्वारा रचित इस गान से रसिक जनों के हृदय में अतिशय हर्ष का उदय हो।

पद्यानुवाद
सुनते हैं जो जन इस जगमें,
पाते गति कल्याणी॥
हे हरि राधा आवास गृहे,
कब तक वियोगका त्रस सहे?

बालबोधिनी- कवि जयदेव कहते हैं कि सखी ने जो श्रीराधा की चेष्टा निवेदन-विषयक गीत गाया है, वह गीत श्रृंगार-रस द्वारा विभावित चित्तमय रसिक भक्तों को अतिशय आनन्द प्रदान करे।

प्रस्तुत गीत में श्रृंगार-रस के विप्रलम्भ भाव-रसका चित्रण है। समुच्चय स्वर है। शठ नायक है। चिन्ता से व्याकुल होने वाली वासकसज्जा नायिका है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- श्रीजयदेव-कवे: उदितम् (उक्तम्) इदं [श्रृंगार-रस भावितान्त:करणं] रसिकजनम् अतिमुदितं (अतिप्रीतं) तनुताम् (कुरुताम्)। [एतेन श्रृंगार-रसाविष्टैर्भक्तैरिव श्रीजयदेवोक्तवचन-मास्वादनीयमित्युक्तम्] ॥8॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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