गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 252

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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श्लिष्यति चुम्बति जलधर-कल्पम्।
हरिरुपगत इति तिमिरमनल्पम्
नाथ हरे! सीदति... ॥6॥[1]

अनुवाद- जलधर के समान प्रतीत होने वाले घने अन्धकार को "हरि आ गये" ऐसा समझकर आलिंगन और चुम्बन करती हैं।

पद्यानुवाद
जान जलद सम तम को "तुम हो"
फूल उठी मतवाली।
करने लगी उसीका चुम्बन,
आलिंगन मधुमातीन

बालबोधिनी- जब वह कुछ जलभरे मेघ के समान स्निग्ध नीलकान्ति वाले विपुल अन्धकार को देखती हैं तो उन्हें लगता है- 'श्रीकृष्ण, तुम आ गये हो' और उस स्निग्ध अंधकार को ही अंक में भर लेती हैं और चुम्बन करने लगती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [पुनश्च अत्यावेशेन] हरि: उपगत: (आयात:) इति [बुद्धा] जलधर-कल्पं (मेघसदृशं) अनल्पं (प्रगाढ़ं) तिमिरं (अन्धकारं) श्लिष्यति (आलिंगति) चुम्बति च ॥6॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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