गीत गोविन्द -जयदेव पृ. 250

श्रीगीतगोविन्दम्‌ -श्रील जयदेव गोस्वामी

षष्ठ: सर्ग:
धृष्ट-वैकुण्ठ:

द्वादश: सन्दर्भ

12. गीतम्

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मुहुरवलोकित-मण्डन-लीला ।
मधुरिपुरहमिति भावन-शीला
नाथ हरे! सीदति... ॥4॥[1]

अनुवाद- 'मैं ही मधुरिपु हूँ' इस प्रकार की भावनामयी होकर वह मुहु:मुहु: आपके आभूषणों और अलंकरणों को देखती हैं।

पद्यानुवाद
कभी रचाती रास मुग्मा हो,
माधव निज अनुमाने।
हे हरि राधा आवास गृहे,
कब तक वियोगका त्रस सहे?

बालबोधिनी- हे श्रीकृष्ण! आपके साथ एकप्राण हो 'मैं ही मधुसूदन हूँ, मैं ही श्रीराधाप्राण श्रीकृष्ण हूँ, ऐसी भावना करती हुई स्वयं में आपका आरोपण कर लेती हैं, तद्रूप हो जाती हैं। ये मुकुट, कुण्डल, वनमाला आदि अलंकार श्रीराधा के साथ रमण करने योग्य हैं- इस भावना से पुन: पुन: उन अलंकारों को धारण करती हैं। स्त्री-योग्य आभूषणों को छोड़कर तुम्हारे विरह के दु:ख से पुरुषायित सुरत योग्य आभूषणों को धारण करती हुई तद्ररूपता को प्राप्त हुई वह अपना समय बिताती हैं। वह माधव बनकर श्रीराधा का श्रृंगार देखती हैं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अन्वय- [तत्प्रकारमेवाह मुहु: (पुन: पुन:) [स्वस्मिन्नेव] अवलोकित-मण्डनलीला (अवलोकिता तवैव मण्डनस्य बर्हगुञ्जादिभूषणस्य लीला विलासो यया सा) अतएव अहं मधुरिपु: (श्रीकृष्ण:) इति भावनशीला (भावनपरा; कृष्ण एवाहमिति चिन्तनपरा इति भाव:) ॥4॥

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सर्ग नाम पृष्ठ संख्या
प्रस्तावना 2
प्रथम सामोद-दामोदर: 19
द्वितीय अक्लेश केशव: 123
तृतीय मुग्ध मधुसूदन 155
चतुर्थ स्निग्ध-मधुसूदन 184
पंचम सकांक्ष-पुण्डरीकाक्ष: 214
षष्ठ धृष्ठ-वैकुण्ठ: 246
सप्तम नागर-नारायण: 261
अष्टम विलक्ष-लक्ष्मीपति: 324
नवम मुग्ध-मुकुन्द: 348
दशम मुग्ध-माधव: 364
एकादश स्वानन्द-गोविन्द: 397
द्वादश सुप्रीत-पीताम्बर: 461

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